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आफ़त में है जान! / रमेश तैलंग

बड़के भैया रंग-रंगीले
ख़ूब चबाएँ पान,
मँझले भैया गप्प-गपीले
दिन-भर खाएँ कान ।
हमारी आफ़त में है जान!

हम दोनों का हुकुम बजाएँ,
रूठें जब वे हमीं मनाएँ,
फिर भी तेवर हमें दिखाएँ
जैसे तीर-कमान।
हमारी आफ़त में है जान!

ठाठ-बाट तो रखते ऐसे,
मालिक हों दुनिया के जैसे,
देते न लेकिन दस पैसे,
हैं कंजूस महान।
हमारी आफ़त में है जान!

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