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एक बिल्ली सैलानी / प्रकाश मनु

पंपापुर में रहती थी जी
एक बिल्ली सैलानी,
सुंदर-सुंदर, गोल-मुटल्ली
लेकिन थी वह कानी।

बड़े सवेरे घर से निकली
एक दिन बिल्ली कानी,
याद उसे थे किस्से प्यारे
जो कहती थी नानी।

याद उसे थीं देश-देश की
रंग-रंगीली बातें,
दिल्ली के दिन प्यारे-प्यारे
या मुंबई की रातें।

मैं भी चलकर दुनिया घूमूँ-
उसने मन में ठानी,
बड़े सवेरे घर से निकली
वह बिल्ली सैलानी

गई आगरा दौड़-भागकर
देखा सुंदर ताज,
देख ताज को हुआ देश पर
बिल्ली को भी नाज।

फिर आई मथुरा में, खाए
ताजा-ताजा पेड़े,
आगे चल दी, लेकिन रस्ते
थे कुछ टेढ़े-मेढ़े।

लाल किला देखा दिल्ली का
लाल किले के अंदर,
घूर रहा था बुर्जी ऊपर
मोटा सा एक बंदर।

भागी-भागी पहुँच गई वह
तब सीधे कलकत्ते,
ईडन गार्डन में देखे फिर
तेंदुलकर के छक्के!

बैठी वहाँ, याद तब आई
नानी, न्यारी नानी,
नानी जो कहती थी किस्से
सुंदर और लासानी।

घर अपना है कितना अच्छा-
घर की याद सुहानी,
कहती-झटपट घर को चल दी
वह बिल्ली सैलानी।

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