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कलियुग / सुरेश विमल

सहस्रों वर्ष पूर्व
गाये गये थे जयगीत
इस धराधाम पर
जब राम ने किया था
रावण के अत्याचारी
युग का अंत...

आज भी उसी तरह
प्रतिध्वनित होते हैं
राम की उस महान
ऐतिहासिक विजय के
कालजयी जयघोष
समय की सहस्रों वर्ष मोटी
परतों को भेदते हुए... !

नितान्त बेख़बर हैं हम लेकिन
और बेपरवाह

इतिहास अब हमारे लिए
अर्थहीन हो चला है लगभग
परम्पराएँ और संस्कार
अप्रासंगिक...!

इसीलिए शायद अपने चारों ओर
लम्बे होते हुए रावणों के क़द
हमें डराते नहीं...

किसी के लिए भी
जय घोष कर सकते हैं अब हम
चाहे राम हो या रावण
या कोई और
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता हमें।

दरअसल
यह एक अलग तरह का युग है
अवसरानुकूल बदलने का युग
सुविधानुसार जीने का युग...

शायद इसीलिए
कलियुग।

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