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कितना अधिक सताता जाड़ा / कमलेश द्विवेदी

मम्मी कितना अधिक सताता रोज-रोज यह जाड़ा।
कट-कट करते दाँत कि जैसे कोई रटे पहाड़ा।

कोई कोट-पैंट पहने है,
कोई स्वेटर-मफलर।
कोई शाल-दुशाला ओढ़े,
फिर भी काँपे थर-थर।
अच्छे-अच्छों का जाड़े ने हुलिया आज बिगाड़ा।
मम्मी कितना अधिक सताता रोज-रोज यह जाड़ा।

पलक झपकते रात बीतती,
पल में दिन ढल जाये।
कब हम पढ़ें और कब खेलें,
कुछ भी समझ न आये।
टाइम टेबल का जाड़े ने कैसा किया कबाड़ा।
मम्मी कितना अधिक सताता रोज-रोज यह जाड़ा।

मन करता है बिस्तर पर हम।
सारा समय बितायें।
बिस्तर पर ही चाय पियें हम,
और पकौड़े खायें।
फिर तुम हमें खिलाओ तलकर उबला हुआ सिंघाड़ा।
मम्मी कितना अधिक सताता रोज-रोज यह जाड़ा।

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