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अम्माँ को क्या सूझी / रमेश तैलंग

अम्माँ को क्या सूझी
मुझको कच्ची नींद सुलाकर,
बैठ गई हैं धूप सेंकने
ऊपर छत पर जाकर।

जाग गया हूँ मैं, अब कैसे
खबर उन्हें पहुँचाऊँ?
अम्माँ! अम्माँ! कहकर उनको
कितनी बार बुलाऊँ?

पाँव अभी हैं छोटे मेरे,
डगमग-डगमग करते,
गिरने लगता हूँ मैं नीचे
थोड़ा-सा ही चलते।

कैसे चढ़ पाऊँगा मैं अब
इतना ऊँचा जीना?
सोच-सोचकर मुुझे अभी से
है आ रहा है पसीना।

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