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इस बेढंगी-सी दुनिया में
अगर नहीं मैं होता,
सोचो, दुनिया कैसी लगती
और मेरा क्या होता?
दूर किसी ग्रह के कोने में
बैठा तब मैं रोता,
अथवा कहीं अँधेरे में, मैं
पड़ा-पड़ा तब सोता।
अध्यापक तब कक्षा में फिर-
मुर्गा किसे बनाते,
और बनाकर मुर्गा, किससे
कुकडूँ-कूँ करवाते?
माँ किसके तब कान खींचती
पापा कब दुलराते,
दादा-दादी किसे प्यार से
अपने पास बुलाते?
तुम बच्चों की खातिर तब फिर-
लिखता कौन कहानी,
और सुनाता गीत कौन तब
सुंदर और लासानी।
लिख-लिखकर तब कौन सैकड़ों
पन्ने काले करता
उन पन्नों से संपादक का
दफ्तर कैसे भरता।
अगर नहीं मैं होता,
सोचो, दुनिया कैसी लगती
और मेरा क्या होता?
दूर किसी ग्रह के कोने में
बैठा तब मैं रोता,
अथवा कहीं अँधेरे में, मैं
पड़ा-पड़ा तब सोता।
अध्यापक तब कक्षा में फिर-
मुर्गा किसे बनाते,
और बनाकर मुर्गा, किससे
कुकडूँ-कूँ करवाते?
माँ किसके तब कान खींचती
पापा कब दुलराते,
दादा-दादी किसे प्यार से
अपने पास बुलाते?
तुम बच्चों की खातिर तब फिर-
लिखता कौन कहानी,
और सुनाता गीत कौन तब
सुंदर और लासानी।
लिख-लिखकर तब कौन सैकड़ों
पन्ने काले करता
उन पन्नों से संपादक का
दफ्तर कैसे भरता।
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