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उड़न खटोले पर बैठूँ मैं
पंछी-सा बन जाऊँ,
बिना पंख उड़ जाऊँ नभ में
मन ही मन मुस्काऊँ।
दूर गगन से धरती देखूँ
अचरज में पड़ जाऊँ,
वन, महलों, नदियों को देखूँ
सबको छोटा पाऊँ।
नदियाँ सकरी दिखती मुझको,
महल घरौंदे जैसे,
छोटे गाँव, नगर भी छोटे,
पशु तो चींटी जैसे।
उड़न खटोले से जो दिखता
लगता जादू जैसा,
धरती और गगन को प्रभु ने
रूप दिया है कैसा?
पंछी-सा बन जाऊँ,
बिना पंख उड़ जाऊँ नभ में
मन ही मन मुस्काऊँ।
दूर गगन से धरती देखूँ
अचरज में पड़ जाऊँ,
वन, महलों, नदियों को देखूँ
सबको छोटा पाऊँ।
नदियाँ सकरी दिखती मुझको,
महल घरौंदे जैसे,
छोटे गाँव, नगर भी छोटे,
पशु तो चींटी जैसे।
उड़न खटोले से जो दिखता
लगता जादू जैसा,
धरती और गगन को प्रभु ने
रूप दिया है कैसा?
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