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२.
नग्न तृण, तरु, पल्लव, खग वृंद,
नग्न है श्यामल-तल आकाश,
नग्न रवि, शशि, तारक, नीहार,
नग्न बादल, विद्युत, वातास,
जलधि के आंगन में अविराम,
ऊर्मियाँ नर्तन करतीं नग्न,
सरोवर, नद, निर्झर, गिरि, श्रृंग,
नग्न रहकर ही रहते मग्न।
भली मानवता ही क्यों आज
रही अपने पर पर्दा डाल?
यही करती जगती से प्रश्न,
रही खिल वन में पाटल-माल!
३.
किसी युग में मानव की आंख
सकी स्वर्गिक सुषमा को तोल,
सकी दे उसका वांछित मूल्य
खुशी से उर की गांठें खोल;
आज कहलाता है अश्लील
हृदय का अनियंत्रित उद्गार,
विकृत जीवन को ही जग आज
समझ बैठा है लोकाचार;
प्रगतिमय यौवन का पट थाम
न बैठो, जग के कंटक जाल!
यही कहती कांटों से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
४.
पुण्य की है जिसको पहचान,
उसे ही पापों का अनुमान
सदाचारों से जो अनभिज्ञ,
दुराचारों से वह अज्ञान,
उसी के लज्जा से नत नेत्र,
जिसे गौरव का प्रतिपल ध्यान;
जगत के जीवन से अब, हाय,
गया उठ भोलेपन का भान!
लगा मत उस भोली को दोष,
न उस पर आंखें लाल निकाल;
स्वयं निज सौरभ से अनजान
रही खिल वन में पाटल-माल!
५.
करे मृदु पंखुरियों को कैद
कुटिल कांटों का कारागार,
बहाएँ बेचारी प्रति पात
मोतियों-से आंसू की धार,
सरसता की प्रतिमा प्रत्यक्ष
पड़ें जा पाषाणों के हाथ,
चला ज्ञानी देने उपदेश,
न्याय होता है सबके साथ;
समझ लें आंखों वाले खूब
नियति की कैसी टेढ़ी चाल;
रंगी अपने लहू से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
६.
नयन में पा आंसू की बूंद,
अधर के ऊपर पा मुसकान,
कहीं मत इसको हे संसार,
दु:खों का अभिनय लेना मान।
नयन से नीरव जल की धार
ज्वलित उर का प्राय: उपहार
हंसी से ही होता है व्यक्त
कभी पीड़ित उर का उद्गार;
तप्त आँसू से झुलसे गाल
किए कोई मदिरा से लाल;
इसी का तो करती संकेत
रही खिल वन में पाटल-माल!
७.
गगन के आंगन में विस्तीर्ण
खिला कोई पाटल का फूल,
उसी पर तारक हिमकण-रुप
नहीं उसकी डालों में शूल;
पंखुरी एक उसी की नित्य
प्रात में गिर पड़ती अनजान,
पूर्व से रंजित होकर और
उषा का बन जाती परिधान;
गिरे दल इसके हो जड़-म्लान,
बड़ा, रे, इसका रंज-मलाल;
विवशता की, पर, ले-ले सांस
रही खिल वन में पाटल-माल!
(अधूरी रचना)
नग्न तृण, तरु, पल्लव, खग वृंद,
नग्न है श्यामल-तल आकाश,
नग्न रवि, शशि, तारक, नीहार,
नग्न बादल, विद्युत, वातास,
जलधि के आंगन में अविराम,
ऊर्मियाँ नर्तन करतीं नग्न,
सरोवर, नद, निर्झर, गिरि, श्रृंग,
नग्न रहकर ही रहते मग्न।
भली मानवता ही क्यों आज
रही अपने पर पर्दा डाल?
यही करती जगती से प्रश्न,
रही खिल वन में पाटल-माल!
३.
किसी युग में मानव की आंख
सकी स्वर्गिक सुषमा को तोल,
सकी दे उसका वांछित मूल्य
खुशी से उर की गांठें खोल;
आज कहलाता है अश्लील
हृदय का अनियंत्रित उद्गार,
विकृत जीवन को ही जग आज
समझ बैठा है लोकाचार;
प्रगतिमय यौवन का पट थाम
न बैठो, जग के कंटक जाल!
यही कहती कांटों से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
४.
पुण्य की है जिसको पहचान,
उसे ही पापों का अनुमान
सदाचारों से जो अनभिज्ञ,
दुराचारों से वह अज्ञान,
उसी के लज्जा से नत नेत्र,
जिसे गौरव का प्रतिपल ध्यान;
जगत के जीवन से अब, हाय,
गया उठ भोलेपन का भान!
लगा मत उस भोली को दोष,
न उस पर आंखें लाल निकाल;
स्वयं निज सौरभ से अनजान
रही खिल वन में पाटल-माल!
५.
करे मृदु पंखुरियों को कैद
कुटिल कांटों का कारागार,
बहाएँ बेचारी प्रति पात
मोतियों-से आंसू की धार,
सरसता की प्रतिमा प्रत्यक्ष
पड़ें जा पाषाणों के हाथ,
चला ज्ञानी देने उपदेश,
न्याय होता है सबके साथ;
समझ लें आंखों वाले खूब
नियति की कैसी टेढ़ी चाल;
रंगी अपने लहू से आज
रही खिल वन में पाटल-माल!
६.
नयन में पा आंसू की बूंद,
अधर के ऊपर पा मुसकान,
कहीं मत इसको हे संसार,
दु:खों का अभिनय लेना मान।
नयन से नीरव जल की धार
ज्वलित उर का प्राय: उपहार
हंसी से ही होता है व्यक्त
कभी पीड़ित उर का उद्गार;
तप्त आँसू से झुलसे गाल
किए कोई मदिरा से लाल;
इसी का तो करती संकेत
रही खिल वन में पाटल-माल!
७.
गगन के आंगन में विस्तीर्ण
खिला कोई पाटल का फूल,
उसी पर तारक हिमकण-रुप
नहीं उसकी डालों में शूल;
पंखुरी एक उसी की नित्य
प्रात में गिर पड़ती अनजान,
पूर्व से रंजित होकर और
उषा का बन जाती परिधान;
गिरे दल इसके हो जड़-म्लान,
बड़ा, रे, इसका रंज-मलाल;
विवशता की, पर, ले-ले सांस
रही खिल वन में पाटल-माल!
(अधूरी रचना)
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कविता
मधुबाला हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
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