- Get link
- X
- Other Apps
Featured post
- Get link
- X
- Other Apps
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर!
(१)
सर में जीवन है, इससे ही
वह लहराता रहता प्रतिपल,
सरिता में जीवन,इससे ही
वह गाती जाती है कल-कल
निर्झर में जीवन,इससे ही
वह झर-झर झरता रहता है,
जीवन ही देता रहता है
नद को द्रुतगति,नद को हलचल,
लहरें उठती,लहरें गिरती,
लहरें बढ़ती,लहरें हटती;
जीवन से चंचल हैं लहरें,
जीवन से अस्थिर है सागर.
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर!
(२)
नभ का जीवन प्रति रजनी में
कर उठता है जगमग-जगमग,
जलकर तारक-दल-दीपों में;
सज नीलम का प्रासाद सुभग,
दिन में पट रंग-बिरंगे औ'
सतरंगे बन तन ढँकता,
प्रातः-सायं कलरव करता
बन चंचल पर दल के दल खग,
प्रार्वट में विद्युत् हँसता,
रोता बादल की बूंदों में,
करती है व्यक्त धरा जीवन,
होकर तृणमय होकर उर्वर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(३)
मारुत का जीवन बहता है
गिरि-कानन पर करता हर-हर,
तरुवर लतिकाओं का जीवन
कर उठता है मरमर-मरमर,
पल्लव का,पर बन अम्बर में
उड़ जाने की इच्छा करता,
शाखाओं पर,झूमा करता
दाएँ-बाएँ नीचे-ऊपर,
तृण शिशु,जिनका हो पाया है
अब तक मुखरित कल कंठ नहीं,
दिखला देते अपना जीवन
फड़का देते अनजान अधर
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(४)
जल में,थल में,नभ मंडल में
है जीवन की धरा बहती,
संसृति के कूल-किनारों को
प्रतिक्षण सिंचित करती रहती,
इस धारा के तट पर ही है
मेरी यह सुंदर सी बस्ती--
सुंदर सी नगरी जिसको है
सब दुनिया मधुशाला कहती;
मैं हूँ इस नगरी की रानी
इसकी देवी,इसकी प्रतिमा,
इससे मेरा सम्बंध अतल,
इससे मेरा सम्बंध अमर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(५)
पल ड्योढ़ी पर,पल आंगन में,
पल छज्जों और झरोखों पर
मैं क्यों न रहूँ जब आने को
मेरे मधु के प्रेमी सुंदर,
जब खोज किसी की हों करते
दृग दूर क्षितिज पर ओर सभी,
किस विधि से मैं गंभीर बनूँ
अपने नयनों को नीचे कर,
मरु की नीरवता का अभिनय
मैं कर ही कैसे सकती हूँ,
जब निष्कारण ही आज रहे
मुस्कान-हँसी के निर्झर झर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(६)
मैं थिर होकर कैसे बैठूँ,
जब ही उठते है पाँव चपल,
मैं मौन खड़ा किस भाँति रहूँ,
जब हैं बज उठते पग-पायल,
जब मधुघट के आधार बने,
कर क्यों न झुकें, झूमें, घूमें,
किस भाँति रहूँ मैं मुख मूँदे,
जब उड़-उड़ जाता है आँचल,
मैं नाच रही मदिरालय में
मैं और नहीं कुछ कर सकती,
है आज गया कोई मेरे
तन में, प्राणों में, यौवन भर !
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(७)
भावों से ऐसा पूर्ण हृदय
बातें भी मेरी साधारण
उर से उठ (होठों)कण्ठ तक आतीं
आते बन जातीं हैं गायन,
जब लौट प्रतिध्वनि आती है,
अचरज होता है तब मुझको-
हो आज गईं मधु-सौरभ से
क्या जड़ दीवारें भी चेतन !
गुंजित करती मदिरालय को
लाचार यही मैं करने को,
अपनेसे ही फूटा पड़ता
मुझमें लय-ताल-बंधा मधु स्वर !
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(८)
गिरि में न समा उन्माद सका
तब झरनों में बाहर आया,
झरनों की ही थी मादकता
जिसको सर-सरिता ने पाया,
जब संभल सका उल्लास नहीं
नदियों से, अबुधि को आईं,
अबुधि की उमड़ी मस्ती को
नीरद भू पर बरसाया,
मलयानिल को निज सौरभ दे
मधुवन कुछ हल्का हो जाता,
मैं कर देती मदिरा वितरित
जाता उर से कुछ भार उतर !
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(९)
तन की क्षणभंगुर नौका पर
चढ़ कर, हे यात्री, तू आया,
तूने नानाविधि नगरों को
होगा जीवन-तट पर पाया,
जड शुष्क उन्हें देखा होगा
रक्षित सीमित प्राचीरों से,
इस नगरी में पाई होगी
अपने उर की स्वप्निल छाया,
है शुष्क सत्य यदि उपयोगी
तो सुखदायक है स्वप्न सरस,
सुख भी जीवन का अंश अमर,
मत जग से ङर, कुछ देर ठहर ।
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(१०)
जीवन में दोनों आते हैं
मिट्टी के पल, सोने के क्षण,
जीवन से दोनों जाते हैं
पाने के पल, खोने के क्षण
हम जिस क्षण में जो करते हैं
हम बाध्य वही हैं करने को,
हँसने के क्षण पाकर हँसते,
रोते हैं पा रोने के क्षण,
विस्मृति की आई है वेला,
कर, पाँय, न इसकी अवहेला,
आ, भूलें हास रुदन दोनों
मधुमय होकर दो-चार पहर ।
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
है आज भरी मेरी गागर!
(१)
सर में जीवन है, इससे ही
वह लहराता रहता प्रतिपल,
सरिता में जीवन,इससे ही
वह गाती जाती है कल-कल
निर्झर में जीवन,इससे ही
वह झर-झर झरता रहता है,
जीवन ही देता रहता है
नद को द्रुतगति,नद को हलचल,
लहरें उठती,लहरें गिरती,
लहरें बढ़ती,लहरें हटती;
जीवन से चंचल हैं लहरें,
जीवन से अस्थिर है सागर.
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर!
(२)
नभ का जीवन प्रति रजनी में
कर उठता है जगमग-जगमग,
जलकर तारक-दल-दीपों में;
सज नीलम का प्रासाद सुभग,
दिन में पट रंग-बिरंगे औ'
सतरंगे बन तन ढँकता,
प्रातः-सायं कलरव करता
बन चंचल पर दल के दल खग,
प्रार्वट में विद्युत् हँसता,
रोता बादल की बूंदों में,
करती है व्यक्त धरा जीवन,
होकर तृणमय होकर उर्वर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(३)
मारुत का जीवन बहता है
गिरि-कानन पर करता हर-हर,
तरुवर लतिकाओं का जीवन
कर उठता है मरमर-मरमर,
पल्लव का,पर बन अम्बर में
उड़ जाने की इच्छा करता,
शाखाओं पर,झूमा करता
दाएँ-बाएँ नीचे-ऊपर,
तृण शिशु,जिनका हो पाया है
अब तक मुखरित कल कंठ नहीं,
दिखला देते अपना जीवन
फड़का देते अनजान अधर
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(४)
जल में,थल में,नभ मंडल में
है जीवन की धरा बहती,
संसृति के कूल-किनारों को
प्रतिक्षण सिंचित करती रहती,
इस धारा के तट पर ही है
मेरी यह सुंदर सी बस्ती--
सुंदर सी नगरी जिसको है
सब दुनिया मधुशाला कहती;
मैं हूँ इस नगरी की रानी
इसकी देवी,इसकी प्रतिमा,
इससे मेरा सम्बंध अतल,
इससे मेरा सम्बंध अमर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(५)
पल ड्योढ़ी पर,पल आंगन में,
पल छज्जों और झरोखों पर
मैं क्यों न रहूँ जब आने को
मेरे मधु के प्रेमी सुंदर,
जब खोज किसी की हों करते
दृग दूर क्षितिज पर ओर सभी,
किस विधि से मैं गंभीर बनूँ
अपने नयनों को नीचे कर,
मरु की नीरवता का अभिनय
मैं कर ही कैसे सकती हूँ,
जब निष्कारण ही आज रहे
मुस्कान-हँसी के निर्झर झर.
है आज भरा मेरा जीवन
है आज भरी मेरी गागर!
(६)
मैं थिर होकर कैसे बैठूँ,
जब ही उठते है पाँव चपल,
मैं मौन खड़ा किस भाँति रहूँ,
जब हैं बज उठते पग-पायल,
जब मधुघट के आधार बने,
कर क्यों न झुकें, झूमें, घूमें,
किस भाँति रहूँ मैं मुख मूँदे,
जब उड़-उड़ जाता है आँचल,
मैं नाच रही मदिरालय में
मैं और नहीं कुछ कर सकती,
है आज गया कोई मेरे
तन में, प्राणों में, यौवन भर !
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(७)
भावों से ऐसा पूर्ण हृदय
बातें भी मेरी साधारण
उर से उठ (होठों)कण्ठ तक आतीं
आते बन जातीं हैं गायन,
जब लौट प्रतिध्वनि आती है,
अचरज होता है तब मुझको-
हो आज गईं मधु-सौरभ से
क्या जड़ दीवारें भी चेतन !
गुंजित करती मदिरालय को
लाचार यही मैं करने को,
अपनेसे ही फूटा पड़ता
मुझमें लय-ताल-बंधा मधु स्वर !
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(८)
गिरि में न समा उन्माद सका
तब झरनों में बाहर आया,
झरनों की ही थी मादकता
जिसको सर-सरिता ने पाया,
जब संभल सका उल्लास नहीं
नदियों से, अबुधि को आईं,
अबुधि की उमड़ी मस्ती को
नीरद भू पर बरसाया,
मलयानिल को निज सौरभ दे
मधुवन कुछ हल्का हो जाता,
मैं कर देती मदिरा वितरित
जाता उर से कुछ भार उतर !
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(९)
तन की क्षणभंगुर नौका पर
चढ़ कर, हे यात्री, तू आया,
तूने नानाविधि नगरों को
होगा जीवन-तट पर पाया,
जड शुष्क उन्हें देखा होगा
रक्षित सीमित प्राचीरों से,
इस नगरी में पाई होगी
अपने उर की स्वप्निल छाया,
है शुष्क सत्य यदि उपयोगी
तो सुखदायक है स्वप्न सरस,
सुख भी जीवन का अंश अमर,
मत जग से ङर, कुछ देर ठहर ।
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
(१०)
जीवन में दोनों आते हैं
मिट्टी के पल, सोने के क्षण,
जीवन से दोनों जाते हैं
पाने के पल, खोने के क्षण
हम जिस क्षण में जो करते हैं
हम बाध्य वही हैं करने को,
हँसने के क्षण पाकर हँसते,
रोते हैं पा रोने के क्षण,
विस्मृति की आई है वेला,
कर, पाँय, न इसकी अवहेला,
आ, भूलें हास रुदन दोनों
मधुमय होकर दो-चार पहर ।
है आज मरा यौवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर ।
Harivansh Rai Bachchan Kavita
Hindi Kavita
Kavita
Poem
Poetry
कविता
मधु कलश हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
- Get link
- X
- Other Apps
Comments
Post a Comment