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अग्निदेश

नहीं--
मैं यह आश्वासन नहीं दे सकूँगा
कि जब इस आग-अंगार
लपटों की ललकार,
उत्तप्त बयार,
क्षार-धूम्र की फूत्कार
को पार कर जाओगे
तो निर्मल, शीतल जल का सरोवर पाओगे,
जिसमें पैठ नहाओगे,
रोम-रोम जुड़ाओगे
अपनी प्यास बुझाओगे ।
नहीं--
इस आग-अंगार के पार भी
आग होगी, अंगार होंगे,
और उनके पार फिर आग-अंगार,
फिर आग-अंगार,
फिर और...
तो क्या छोर तक तपना-जलना ही होगा
नहीं-
इस आग से त्राण तब पाओगे
जब तुम स्वयं आग बन जाओगे !

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