- Get link
- X
- Other Apps
Featured post
- Get link
- X
- Other Apps
तीर्थाधिराज
श्री जगन्नाथ जी की मंदिर की चौकी में
जो मिथुन मूर्तियाँ लगी हुई
मैं उन्हें एक जगह पर ठिठका हूँ-
प्राकृतिक नग्नता की सुषमा में ढली हुई
नारी घुटतनों के बल बैठी;
उसकी नंगी जंघा पर नंगा शिशु बैठा,
अपने नन्हें-नन्हें, सुकुमार,
अपरिभाषित सुख अनुभव करते हाथों से
अपनी जननी के पीन पयोधर को पकड़े,
ऊपर मुँह कर
दुद्ध पीता-
अधरों में जैसे तृषा दुग्ध की
तृष्णा स्तन की तरस परस की तृप्त हुई
भोली-भाली, नैसर्गिक-सी मुस्कान बनी
गालों, आँखों,पलकों, भौहों से छलक रही।
(मातृत्व-सफलता मूर्तित देखी और कहीं?)
प्राकृतिक नग्नता के तेजस में ढला हुआ
नर पास खड़ा;
नग्ना नारी
अपने कृतज्ञ, कामनापूर्ण, कोमल, रोमांचित हाथों से
पति-पुष्ट दीर्घ-दृढ़ शिश्न दंड क्रियाएँ पकड़,
हो उर्ध्वमुखी,
अपने रसमय अधरों से पीती,
अधरामृत-मज्जित करती-
मुख-मुद्रा से बिंबित होता
वह किस, कैसे, कितने सुख का
आस्वादन इस पल करती है!-
(पल काल-चाल में जो निश्चल)।
(जब कला पकड़ती ऐसे क्षण,
उसके ऊपर,
सच मान,
अमरता मरती है)
नवयुवक नग्न
जैसे अपना संतोष और उल्लास
चरम सीमा तक पहुँचा देने को,
अपने उत्थित हाथों से पकड़ सुराही,
मदिरा से पूऋत,
मधु पीता है-आनंद-मग्न!
(लगता जिस पर यह घटता
वह कृतकृत्य मही।)
ईर्ष्या न किसे उससे
जो ऊपर से नीचे तक
ऐसा जीवन जिया
कि ऐसा जीता है।
(हर सच्चा-सीधा कलाकार
अभिव्यक्त वही करता
जो वह जीता,
जो उसपर बीता है।)
इस मूर्तिबंध का कण-कण
कैसी जिजीविषा घोषित करता!
यह जिजीविषा, या जो कुछ भी,
उसको मैं अपने पूरे तन, पूरे मन, पूरी वाणी से
नि:शंक समर्थित, अनुमोदित, पोषित करता।
अमृत पीकर के नहीं,
अमर वह होता है,
पा मर्त्य देह,
जो जीवन-रस हर एक रूप,
हर एक रंग में
छककर, जमकर पीता है।
इतने में ही कवि की सारी रामायाण,
सारी गीता है।
'मधुशाला' का पद एक
अचानक कौंध गया कानों में-
'नहीं जानता कौन, मनुज
आया बनका पीनेवाला?
कौन, अपरिचित उस साक़ी से
जिसने दूध पिला पाला?
जीवन पाकर मानव पीकर
मस्त रहे इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले
पाई उसने मधुशाला।'
क्या इसी भाव पर आधारित यह मूर्ति बनी?
क्या किसी पुरातन पूर्व योनि में
मैंने ही यह मूर्ति गढ़ी?
प्रस्थापित की इस पावनतम देवालय में,
साहस कर, दृढ़ विश्वास के लिए-
कोई समान धर्मा मेरा
तो कभी जन्म लेगा
जो मुझको समझेगा?
यदि मूर्ति देख यह
तेरी आँखें नीचे को गड़तीं
लगती है तुझे शर्म,
(जीवन के सबसे गहरे सत्य
प्रतीकों में बोला करते।)
तो तुझे अभी अज्ञात
कला का,
जीवन का,
धर्म का,
मूढ़मति,
गूढ़ मर्म।
श्री जगन्नाथ जी की मंदिर की चौकी में
जो मिथुन मूर्तियाँ लगी हुई
मैं उन्हें एक जगह पर ठिठका हूँ-
प्राकृतिक नग्नता की सुषमा में ढली हुई
नारी घुटतनों के बल बैठी;
उसकी नंगी जंघा पर नंगा शिशु बैठा,
अपने नन्हें-नन्हें, सुकुमार,
अपरिभाषित सुख अनुभव करते हाथों से
अपनी जननी के पीन पयोधर को पकड़े,
ऊपर मुँह कर
दुद्ध पीता-
अधरों में जैसे तृषा दुग्ध की
तृष्णा स्तन की तरस परस की तृप्त हुई
भोली-भाली, नैसर्गिक-सी मुस्कान बनी
गालों, आँखों,पलकों, भौहों से छलक रही।
(मातृत्व-सफलता मूर्तित देखी और कहीं?)
प्राकृतिक नग्नता के तेजस में ढला हुआ
नर पास खड़ा;
नग्ना नारी
अपने कृतज्ञ, कामनापूर्ण, कोमल, रोमांचित हाथों से
पति-पुष्ट दीर्घ-दृढ़ शिश्न दंड क्रियाएँ पकड़,
हो उर्ध्वमुखी,
अपने रसमय अधरों से पीती,
अधरामृत-मज्जित करती-
मुख-मुद्रा से बिंबित होता
वह किस, कैसे, कितने सुख का
आस्वादन इस पल करती है!-
(पल काल-चाल में जो निश्चल)।
(जब कला पकड़ती ऐसे क्षण,
उसके ऊपर,
सच मान,
अमरता मरती है)
नवयुवक नग्न
जैसे अपना संतोष और उल्लास
चरम सीमा तक पहुँचा देने को,
अपने उत्थित हाथों से पकड़ सुराही,
मदिरा से पूऋत,
मधु पीता है-आनंद-मग्न!
(लगता जिस पर यह घटता
वह कृतकृत्य मही।)
ईर्ष्या न किसे उससे
जो ऊपर से नीचे तक
ऐसा जीवन जिया
कि ऐसा जीता है।
(हर सच्चा-सीधा कलाकार
अभिव्यक्त वही करता
जो वह जीता,
जो उसपर बीता है।)
इस मूर्तिबंध का कण-कण
कैसी जिजीविषा घोषित करता!
यह जिजीविषा, या जो कुछ भी,
उसको मैं अपने पूरे तन, पूरे मन, पूरी वाणी से
नि:शंक समर्थित, अनुमोदित, पोषित करता।
अमृत पीकर के नहीं,
अमर वह होता है,
पा मर्त्य देह,
जो जीवन-रस हर एक रूप,
हर एक रंग में
छककर, जमकर पीता है।
इतने में ही कवि की सारी रामायाण,
सारी गीता है।
'मधुशाला' का पद एक
अचानक कौंध गया कानों में-
'नहीं जानता कौन, मनुज
आया बनका पीनेवाला?
कौन, अपरिचित उस साक़ी से
जिसने दूध पिला पाला?
जीवन पाकर मानव पीकर
मस्त रहे इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले
पाई उसने मधुशाला।'
क्या इसी भाव पर आधारित यह मूर्ति बनी?
क्या किसी पुरातन पूर्व योनि में
मैंने ही यह मूर्ति गढ़ी?
प्रस्थापित की इस पावनतम देवालय में,
साहस कर, दृढ़ विश्वास के लिए-
कोई समान धर्मा मेरा
तो कभी जन्म लेगा
जो मुझको समझेगा?
यदि मूर्ति देख यह
तेरी आँखें नीचे को गड़तीं
लगती है तुझे शर्म,
(जीवन के सबसे गहरे सत्य
प्रतीकों में बोला करते।)
तो तुझे अभी अज्ञात
कला का,
जीवन का,
धर्म का,
मूढ़मति,
गूढ़ मर्म।
Harivansh Rai Bachchan Kavita
Hindi Kavita
Kavita
Poem
Poetry
कविता
जाल समेटा हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
- Get link
- X
- Other Apps
Comments
Post a Comment