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तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती

(१)
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

बंद किवाड़े कर-कर सोए
सब नगरी के बासी,
वक्त तुम्हारे आने का यह
मेरे राग विलासी,
आहट भी प्रतिध्वनित तुम्हारी
इस पर होती आई,
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

(२)
इसके गुण-अवगुण बतलाऊँ?
क्या तुमसे अनजाना?
मिला मुझे है इसके कारण
गली-गली का ताना,
लेकिन बुरी-भली, जैसी भी,
है यह देन तुम्हारी,
मैंने तो सेई एक तुम्हारी थाती।
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

(३)
तुम पैरों से ठुकरा देते
यह बलि-बलि हो जाती,
कहाँ तुम्हारी छाती की भी
धड़कन यह सुन पाती,
और चुकी है चूम उँगलियाँ
मधु बरसानेवाली, अचरज क्या इतनी आज बनी मदमाती ।
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

(४)
मेरी उर-वीणा पर चाहो
जो तुम तान सँवारो,
उसके जिन भावीं-भेदों को
तुम चाहो उद्गारो,
जिस परदे को चाहो खोलो,
जिसको चाहो मूँदो,
यह आज नहीं है दुनिया से शरमाती।
तुम छेड़ो मेरी बीन कसी, रसराती।

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