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भोलेपन की कीमत

(लुमुम्बा की स्मृति में)

तुम इसे कलप्ना कहो, स्वप्न की बात कहो,
क्या फ़र्क पड़ा;
शुद्ध सत्य किसकी आंखों ने देखा है ?
जिन आंखों ने परियाँ देखीं, सुन्दरियां देखीं,
सूनी घड़ियाँ भी देखीं,
उनसे हीं मैंने देखा है-

पर्वतमाला में आग लगी, जलती है,
अंबर छूने को लपटें उठतीं,
निर्झर झुलसा, तपकर चट्टान चटकती है,
जानवर नहीं रोते चिल्लाते, घबराते ।
वे सहज बोध से आने वाली दुर्घटना को
जान त्राण की कोई राह बना लेते ।

वन जलता है,
लकड़ी तो अपने अन्दर आग बसाए है,
ज्वाला-माला का जैसे रेला-मेला है ।
पंछी क्यों रोएँ, चिल्लाएँ या घबराएँ ?-
सारा नभमण्डल उनका है, पर उनके हैं ।
घर जलता, बस्ती जलती है;
इन्सान छोड़कर सब कुछ भागे जाते हैं;
प्राणों से बढ़कर और बचा लेने की कोई चीज़ नहीं;
कुछ ध्वंस न ऐसा हो सकता, यदि जीता है,
इन्सान पुनर्निर्माण न जिसका कर लेता !

बच्ची का घर के पास घरौंदा जलता है--
गुड़िया गुड्डे के साथ पलंग पर बैठी है-
'अब उनको कौन चेताएगा !-
अब उनको कौन बचाएगा!'
बच्ची चिल्लाती लपटों में धँस जाती है,
अपने भोले मन, भोले बचपन की कीमत
प्राणों के साथ चुकाती है ।

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