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हंस-मानस की नर्तकी

शब्‍द-बद्ध
तुमको करने का
मैं दु:साहस नहीं करूँगा
तुमने
अपने अंगों से
जो गीत लिखा है-
विगलित लयमय,
नीरव स्‍वरमय
सरस रंगमय
छंद-गंधमय-
उसके आगे
मेरे शब्‍दों का संयोजन-
अर्थ-समर्थ बहुत होकर भी-
मेरी क्षमता की सीमा में-
एक नई कविता-सा केवल
जान पड़ेगा-
लय पवहीन,
रसरिक्‍त,
निचोड़ा,
सूखा, भेड़ा।

ओ माखन-सी
मानस हंसिनि,
गीत तुम्‍हारा
जब मैं फिर सुनाना चाहूँगा,
अपने चिर-परिचित शब्‍दों से
नहीं सहरा मैं मागूँगा।
कान रूँध लूँगा,
मुख अपना बंद करूँगा,
पलकों में पर लगा
समय-अवकाश पार कर
क्षीर-सरोवर तीर तुम्‍हारे
उतर पड़ूँगा,
तुम्‍हे निहारूँगा,
नयनों से
जल-मुक्‍ताहल तरल तरल झडूंगा!

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