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संक्रामक शिशिर समीरण छू
जब मधुवन पीला पड़ जाता,
जब कुसुम-कुसुम, जब कली-कली
गिर जाती, पत्ता झड़ जाता,
तब पतझड़ का उजड़ा आँगन
करुणा-ममतामय स्वर वाली
जो कोकिल मुखरित रखती है
तेरे मन को भी बहलाए!
जब ताप भरा, जब दाप भरा
दुख-दीर्घ दिवस ढल चुकता है,
जब अंग-अंग, जब रोम-रोम
वसुधातल का जल चुकता है,
तब शीतल, कोमल, स्नेह भरी
जो शशि किरणें चुपके-चुपके
पृथ्वी पर छाती सहलातीं,
तेरे छाले भी सहलाएँ?
जब प्यास-प्यास कर धरती का
पौधा-पौधा मुर्झाता है,
जब बूँदबूँद को तरस-तरस
तिनका-तिनका मर जाता है,
तब नव जलधर की जो बूंदें
बरसातीं भू पर हरियाली,
तेरे मानस के अन्दर भी
अशा के अंकुर उकसाएँ !
प्रलयांधकार से घिर-घिर कर
युग-युग निश्चल सोने पर भी
युग-युग चेतनता के सारे
लक्षण-लक्षण खोने पर भी
जो सहसा पड़ती जाग राग,
रस, रंगों की प्रतिमा बनकर
वह तुझे मृत्यु की गोदी में
जीवन के सपने दिखलाए!
जब मधुवन पीला पड़ जाता,
जब कुसुम-कुसुम, जब कली-कली
गिर जाती, पत्ता झड़ जाता,
तब पतझड़ का उजड़ा आँगन
करुणा-ममतामय स्वर वाली
जो कोकिल मुखरित रखती है
तेरे मन को भी बहलाए!
जब ताप भरा, जब दाप भरा
दुख-दीर्घ दिवस ढल चुकता है,
जब अंग-अंग, जब रोम-रोम
वसुधातल का जल चुकता है,
तब शीतल, कोमल, स्नेह भरी
जो शशि किरणें चुपके-चुपके
पृथ्वी पर छाती सहलातीं,
तेरे छाले भी सहलाएँ?
जब प्यास-प्यास कर धरती का
पौधा-पौधा मुर्झाता है,
जब बूँदबूँद को तरस-तरस
तिनका-तिनका मर जाता है,
तब नव जलधर की जो बूंदें
बरसातीं भू पर हरियाली,
तेरे मानस के अन्दर भी
अशा के अंकुर उकसाएँ !
प्रलयांधकार से घिर-घिर कर
युग-युग निश्चल सोने पर भी
युग-युग चेतनता के सारे
लक्षण-लक्षण खोने पर भी
जो सहसा पड़ती जाग राग,
रस, रंगों की प्रतिमा बनकर
वह तुझे मृत्यु की गोदी में
जीवन के सपने दिखलाए!
Harivansh Rai Bachchan Kavita
Hindi Kavita
Kavita
Poem
Poetry
कविता
सतरंगिनी हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
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