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जंगल के तो नियम
नहीं परिवर्तित होते-
जंगल चाहे देवदार का हो
कि सभ्यता का जंगल हो ।
'जंगल में मंगल'
तो तुक की सिर्फ़ चुहल भर,
पर जंगल में
सदा रहा है,
सदा रहेगा,
ज़बरदस्त का ठेंगा सिर पर ।
और सभ्यता के जंगल में---
यह विकास की दिशा मान लें-
अन्तर करना मुश्किल होगा
पशु-नर बल में,
नर-पशु छल में ।
अर्द्ध रात्रि के
महामौन, महदांधकार में
एक माँद से
पंचानन चुपचाप निकलता,
मूक, दबे पाँवों से चलता-
गर्जन-तर्जन तो गंवार सिंहों की माषा-
और एक भोले-से मृग को देख उछलता
उसके ऊपर,
पटक उसे देता है भू पर,
औ' उसके छटपटा रहे अंगों को पंजों दाब
कान में उसके कहता-
'प्राण न लूंगा;
बस, लेटा रह भार ज़रा-सा मेरा सहता,
मैं तो तेरी रक्षा करने को आया हूं,
तुझे न मैं हथिया लेता तो
शायद बाहर आकर वह तुझको खा जाता
जो पड़ोस के झंखाड़ों से
ताक लगाए तुझपर रहता ।
धन्यवाद दे मुझको, मर्दे !'
नि:सहाय मृग प्रश्न करे क्या ?
क्या उत्तर दे ?
डरपाई-सी पौ फूटी है;
दृश्य देखकर
घबराए-से कौओं के दल
उचक फुनगियों पर,
औचक, भौचक उड़-उड़कर आसमान में
ज़ोर-ज़ोर से
मचा रहे हैं शोर-
'ज़ोर!' 'ज़ोर!' 'ज़ोर!'-
बाक़ी सब चुप
क्योंकि सभी की
कहीं दबी है कोर ।
नहीं परिवर्तित होते-
जंगल चाहे देवदार का हो
कि सभ्यता का जंगल हो ।
'जंगल में मंगल'
तो तुक की सिर्फ़ चुहल भर,
पर जंगल में
सदा रहा है,
सदा रहेगा,
ज़बरदस्त का ठेंगा सिर पर ।
और सभ्यता के जंगल में---
यह विकास की दिशा मान लें-
अन्तर करना मुश्किल होगा
पशु-नर बल में,
नर-पशु छल में ।
अर्द्ध रात्रि के
महामौन, महदांधकार में
एक माँद से
पंचानन चुपचाप निकलता,
मूक, दबे पाँवों से चलता-
गर्जन-तर्जन तो गंवार सिंहों की माषा-
और एक भोले-से मृग को देख उछलता
उसके ऊपर,
पटक उसे देता है भू पर,
औ' उसके छटपटा रहे अंगों को पंजों दाब
कान में उसके कहता-
'प्राण न लूंगा;
बस, लेटा रह भार ज़रा-सा मेरा सहता,
मैं तो तेरी रक्षा करने को आया हूं,
तुझे न मैं हथिया लेता तो
शायद बाहर आकर वह तुझको खा जाता
जो पड़ोस के झंखाड़ों से
ताक लगाए तुझपर रहता ।
धन्यवाद दे मुझको, मर्दे !'
नि:सहाय मृग प्रश्न करे क्या ?
क्या उत्तर दे ?
डरपाई-सी पौ फूटी है;
दृश्य देखकर
घबराए-से कौओं के दल
उचक फुनगियों पर,
औचक, भौचक उड़-उड़कर आसमान में
ज़ोर-ज़ोर से
मचा रहे हैं शोर-
'ज़ोर!' 'ज़ोर!' 'ज़ोर!'-
बाक़ी सब चुप
क्योंकि सभी की
कहीं दबी है कोर ।
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जाल समेटा हरिवंशराय बच्चन
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