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पथभ्रष्ट

है कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(१)
पार तम के दीख पड़ता
एक दीपक झिलमिलाता,
जा रहा उस ओर हूँ मैं
मत्त-मधुमय गीत गाता,

इस कुपथ पर या सुपथ पर पर
मैं अकेला ही नहीं हूँ,
जानता हूँ क्यों जगत् फिर
उँगलियाँ मुझ पर उठाता--

मौन रहकर इस शहर के
साथ संगी बह रहे हैं,
एक मेरी ही उमंगें
हो रही है व्यक्त स्वर में.

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(२)
क्यों बताऊँ पोत कितने
पार हैं इसने लगाए ?
क्यों बताऊँ वृक्ष कितने
तीर के इसने गिराए?

उर्वरा कितनी धरा को
कर चुकी यह क्यों बताऊँ?
क्यों बताऊँ गीत कितने
इस लहर ने हैं लिखाए

कूल पर बैठे हुए कवि से
किसी दुःख की घड़ी में?
क्या नहीं पर्याप्त इतना
जानना,गति है लहर में?

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(३)
फल भरे तरु तोड़ डाले
शांत मत लेकिन पवन हो,
वज्र घन चाहे गिराए
किंतु मत सूना गगन हो,

बढ़ बहा दे बस्तियों को
पर न हो जलहीन सरिता,
हो न ऊसर देश चाहे
कंटकों का एक वन हो,

पाप की ही गैल पर
चलते हुए ये पाँव मेरे
हँस रहे हैं उन पगों पर
जो बंधे हैं आज घर में

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(४)
यह नहीं, सुनता नहीं, जो
शंख की ध्वनि आ रही है,
देव-मंदिर में जनों को
साधिकार बुला रही है,

कान में आतीं अज़ानें,
मस्जिदों का यह निमंत्रण,
और ही संदेश देती
किंतु बुलबुल गा रही है,

रक्त से सींची गई है
राह मंदिर-मस्जिदों की,
किंतु रखना चाहता मैं
पाँव मधु सिंचित डगर में ।

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(५)
है न वह व्यक्तित्व मेरा
जिस तरफ मेरा कदम हो,
उस तरफ जाना जगत के
वास्ते कल से नियम हो,

औलिया-आचार्य बनने की
नहीं अभिलाष मेरी,
किसलिए संसार तुझको
देख मेरी चाल कम हो ?

जो चले युगगुग चरण ध्रुव
धर मिटे पद चिह्न उनके,
पद प्रकंपित, हाय, अंकित
क्या करेंगे दो प्रहर में!

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(६)
मैं कहाँ हूँ और वह
आदर्श मधुशाला कहाँ है ।
विस्मरण दे जागरण के
साथ, मधुबाला कहाँ है ।

है कहाँ प्याला कि जो दे
चिर तृषा, चिर-तृप्ति में भी ।
जो डुबा तो ले मगर दे
पार कर, हाला कहाँ है !

देख भीगे होठ मेरे
और कुछ संदेह मत कर,
रक्त मेरे ही हृदय का
है लगा मेरे अधर में ।

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(७)
सोचता है विश्व, कवि ने
कक्ष में बहु विधि सजाए,
मदिर नयना यौवना को
गोद में अपनी बिठाए,

होठ से उसके विचुंबित
प्यालियों को रिक्त करते,
झूमते उमत्तता से
ये सुरा के गान गाए!

राग के पीछे छिपा
चीत्कार कह देगा किसी दिन,
हैं लिखे मधुगीत मैंने
हो खड़े जीवन-समर में ।

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

(८)
पाँव चलने को विवश थे
जब विवेक विहीन था मन,
आज तो मस्तिष्क दूषित
कर चुके पथ के मलिन कण,

मैं इसीसे क्या करूँ
अच्छे-बुरे का भेद, भाई,
लौटना भी तो कठिन है,
चल चुका युग एक जीवन,

हो नियति इच्छा तुम्हारी
पूर्ण, मैं चलता चलूँगा,
पथ सभी मिल एक होंगे
तम घिरे यम के नगर में ।

हैं कुपथ पर पाँव मेरे
आज दुनिया की नज़र में!

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