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सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना

(१)
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

मैंने तो हर तार तुम्हारे
हाथों में, प्रिय, सौंप दिया है
काल बताएगा यह मैंने
ग़लत किया या ठीक किया है
मेरा भाग समाप्त मगर
आरंभ तुम्हारा अब होता है,
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

(२)
जगती के जय-जयकारों की
किस दिन मुझको चाह रही है,
दुनिया के हँसने की मुझको
रत्ती भर परवाह नहीं है,
लेकिन हर संकेत तुम्हारा
मुझे मरण, जीवन, कुछ दोनों
से भी ऊपर, तुम तो मेरी त्रुटियों पर इस भाँति हँसो ना।
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

(३)
मैं हूँ कौन कि धरती मेरी
भूलों का इतिहास बनाए,
पर मुझको तो याद कि मेरी
किन-किन कमियों को बिसराए
वह बैठी है, और इसीसे
सोते और जागते बख्शा
कभी नहीं मैने अपने को, आज मुझे तुम भी बख्शो ना ।
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

(४)
तुमपर भी आरोप कि मेरी
झंकारों में आग नहीं है,
जिसको छू जग चमक न उठता
वह कुछ हो, अनुराग नहीं है,
तुमने मुझे छुआ, छेड़ा भी
और दूर के दूर रहे भी,
उर के बीच बसे हो मेरे सुर के भी तो बीच बसो ना ।
सुर न मधुर हो पाए, उर की वीणा को कुछ और कसो ना।

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