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याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी

याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

तुम भजन गाते, अँधेरे को भागाते
रासते से थे गुज़रते,
औ' तुम्‍हारे एकतारे या संरंगी
के मधुर सुर थे उतरते
कान में, फिर प्राण में, फिर व्‍यापते थे
देह की अनगिन शिरा में;
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

औ' सरंगी-साधु से मैं पूछता था,
क्‍या इसे तुम हो खिलाते?
'ई हमार करेज खाथै, मोर बचवा,'
खाँसकर वे बताते,
और मैं मारे हँसी के लोटता था,
सोचकर उठता सिहर अब,
तब न थी संगीत-कविता से, कला से, प्रीति से मेरी चिन्‍हारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

बैठ जाते औ' सुनाते गीत गोपी-
चंद, राजा भरथरी का,
राम का वनवास, ब्रज का रास लीला,
व्‍याह शंकर-शंकरी का,
औ' तुम्‍हारी धुन पकड़कर कल्‍पना के
लोक में मैं घूमता था,
सोचता था, मैं बड़ा होकर बनूँगा बस इसी पथ का पुजारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

खोल झोली एक चुटकी दाल-आटा
दान में तुमने लिया था,
क्‍या तुम्‍हें मालूम जो वरदान
गान का मुझको दिया था;
लय तुम्‍हारी, स्‍वर तुम्‍हारे, शब्‍द मेरी
पंक्‍त‍ि में गूँजा किया हैं,
और खाली हो चुकीं, सड़-गल चुकीं वे झोलियाँ कब तुम्‍हारी।
याद आते हो मुझे तुम, ओ, लड़कपन के सवेरों के भिखारी!

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