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राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है

(१)
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

बीत गया युग एक तुम्हारे
मंदिर की डयोढ़ी पर गाते,
पर अंतर के तार बहुत-से,
शब्द नहीं झंकृत कर पाते,
एक गीत का अंत दूसरे
का आरंभ हुआ करता है,
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

(२)
अपने मन को ज़ाहिर करने
का दुनिया में बहुत बहाना,
किंतु किसी में माहिर होना,
हाय, न मैंने अब तक जाना,
जब-जब मेरे उर में, सुर में
द्वंद हुआ है, मैंने देखा,
उर विजयी होता, सुर के सिर हार मढ़ी ही रह जाती है।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

(३)
भाषा के उपरकण करेंगे
व्यक्त न मेरी आश-निराशा,
सोच बहुत दिन तक मैं बैठा
मन को मारे, मौन बनाम,
लेकिन तब थी मेरी हालत
उस पगलाई-सी बदली की,
बिन बरसे-बरसाए नभ में जो उमड़ी ही रह जाती है ।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|
(४)
चुप न हुआ जाता है मुझसे
और न मुझसे गाया जाता,
धोखे में रखकर अपने को
और नहीं बहलाया जाता,
शूल निकलने-सा सुख होता
गान उठाता जब अंबर में,
लेकिन दिल के अंदर कोई फाँस गड़ी ही रह जाती है ।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढी ही रह जाती है ।

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