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कील-काँटों में फूल

घन वज्रपात हुआ,
भीषण आघात हुआ,

पर मशीन,
जैसे कल चलती थी,
आज चली जाती है,
कल चली जाएगी;
कोई इसे रोक नहीं पाएगा,
रुक नहीं पाएगी ।
रुकीं नहीं फाइलें
थमीं नहीं पेंसिलें,
चुपी नहीं टिपिर-टिपिर,
रुकी नहीं वर्दियों की
दौड़-धूप, चल-फिर

यह मशीन
हृदय-हीन, शुष्क है,
जीव-रहित जड़ है,
फिर भी सचर है,
ऊब-भरा स्वर है,
क्या इसे फिकर है,
कौन कल गिर गया,
आज गया मर है ।
इसका बस
एक गुन, एक धुन गति है,
मंज़िलेमकतूद बिना
चलती अनवरत है ।
जादूगर एक था,
बीच कील-कांटों के
फूल खिला देता था,
मरी इस मशीन को
ज़रा जिला लेता था ।
हरता था
मशीन की मशीनियत
दे करके
थोड़ी इन्सानियत,
थोड़ी रूहानियत ।
आज वह विदा हुआ,
फूल कील-कांटों से
है छिदा-भिदा हुआ ।
अब पेंच-पुर्जों से
कल, कील, काँटों से
रुप कभी घूंघट न उठाएगा,
रंग कभी नहीं आँख मारेगा,
रस पिचकारी नहीं छोड़ेगा,
औ' मशीन के मलीन तेल से
उठ सुगन्ध मन्द-मन्द कभी नहीं आएगी,
पर मशीन चले चली जाएगी,
चले चली जाएगी !
चलती चली जाएगी !...

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