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बहती है वासन्ती बयार,
पर एक पेड़ शाखावशेष
कर सांध्य गगन को पृष्ठभूमि
है खड़ा हुआ अविचल उदास,
कोकिल के स्वर से उदासीन;
है सोच रहा मन में मानो
उन मरकत पत्रों की बातें,
जो ऋतु-ऋतु मरमर ध्वनि करते
उसकी डाली-डाली झूले,
उन कलियों की, उन कुसुमों की,
जो उसकी गोद में फूले,
जो पड़ पीले, सूखे ढीले
गिर गए, झड़े, औ' फिर न उठे !
जब उसे उचित, हो परिस्फुटित
शत-शत अंकुर में मृदुल-मृदुल !
पड़ती है पावस की फुहार,
पर वसुन्धरा का एक भाग
है लुटा हुआ जिसका सुहाग,
खल्वाटों-सा जिसका ललाट,
है पड़ा चटानों-सा अचेत,
है सोच रहा मन में मानो
उन कोमल-कोमल हरे-हरे
लघु-लघु तृण-पौधों की बातें,
जिनकी मखमल-सी शैया पर
मलयानिल करवट लेता था,
आशीष-दुआएँ देता था,
जो ग्रीष्पातप में जल जलकर
ऐसे सूखे फिर उग न सके!
जब उसे उचित, हो नव सज्जित
हरियाली से मंजुल-मंजुल !
आती है जीवन की पुकार,
पर मानवता का एक सजग
प्रतिनिधि सुधियों के खंडहर में
है बैठा चिंता में निमग्न
कर अपने दोनों कान बंद;
है सोच रहा मन में मानो
उन मादक स्वप्नों की बातें,
जिनमें इच्छाएँ मूर्तिमान
हो सहसा अंतर्धान हुईं,
उन मधुर सूरतों की बातें,
जो मन-मंदिर में विहँस-खेल
औ' पल भर चहल-पहल करके
हो लुप्त गई औ’ फिर न मिलीं !
जब उसे उचित, हो प्रतिध्वनित
उसके प्रति स्वर पर पुलकाकूल ।
पर एक पेड़ शाखावशेष
कर सांध्य गगन को पृष्ठभूमि
है खड़ा हुआ अविचल उदास,
कोकिल के स्वर से उदासीन;
है सोच रहा मन में मानो
उन मरकत पत्रों की बातें,
जो ऋतु-ऋतु मरमर ध्वनि करते
उसकी डाली-डाली झूले,
उन कलियों की, उन कुसुमों की,
जो उसकी गोद में फूले,
जो पड़ पीले, सूखे ढीले
गिर गए, झड़े, औ' फिर न उठे !
जब उसे उचित, हो परिस्फुटित
शत-शत अंकुर में मृदुल-मृदुल !
पड़ती है पावस की फुहार,
पर वसुन्धरा का एक भाग
है लुटा हुआ जिसका सुहाग,
खल्वाटों-सा जिसका ललाट,
है पड़ा चटानों-सा अचेत,
है सोच रहा मन में मानो
उन कोमल-कोमल हरे-हरे
लघु-लघु तृण-पौधों की बातें,
जिनकी मखमल-सी शैया पर
मलयानिल करवट लेता था,
आशीष-दुआएँ देता था,
जो ग्रीष्पातप में जल जलकर
ऐसे सूखे फिर उग न सके!
जब उसे उचित, हो नव सज्जित
हरियाली से मंजुल-मंजुल !
आती है जीवन की पुकार,
पर मानवता का एक सजग
प्रतिनिधि सुधियों के खंडहर में
है बैठा चिंता में निमग्न
कर अपने दोनों कान बंद;
है सोच रहा मन में मानो
उन मादक स्वप्नों की बातें,
जिनमें इच्छाएँ मूर्तिमान
हो सहसा अंतर्धान हुईं,
उन मधुर सूरतों की बातें,
जो मन-मंदिर में विहँस-खेल
औ' पल भर चहल-पहल करके
हो लुप्त गई औ’ फिर न मिलीं !
जब उसे उचित, हो प्रतिध्वनित
उसके प्रति स्वर पर पुलकाकूल ।
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कविता
सतरंगिनी हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
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