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वोलगा से गंगा तक'

बाल सूर्य
वोलगा किनारे उदय हुआ है;
उसे सलामी दी है
लोहे के ऊँचे-लम्बे क्रेनों ने,
अपने-अपने हाथ उठाकर ।
फ़ैक्टरियों की, मिलों, कारखानों की,
काली मीनारी चिमनियां
धुआँ उगलने लगी हैं,
जो उठकर सूरज के मुख पर
फैल गया है,
जैसे उसके दाढ़ी-मूंछें निकल आई हों,
सोन घटायों से
उसके सिर लटें सजाता आसमान है,
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(शीर्षक के लिए लेखक स्व. राहुल
सांकृत्यायन का ॠणी है, जिसकी
इसी नाम की एक पुस्तक है ।)

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