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१
विश्व मंदिर में,
विशाल, विराट, महदाकार, सीमाहीन,
यह क्या हो रहा है !
उड़ रहा है हर दिशा में धूम,
घूमते हैं अग्नि-पिंड समूह,
कितने लक्ष,
कितने कोटि,
जैसे ज्योति के हों व्यूह,
और उठता
एक अद्भुत गान
अम्बर मध्य
जो है मौन-सा गंभीर ।
२
सृष्टि आविर्भूत,
प्रलय के तम तोम से हो मुक्त,
दीपित, पूत,
दग्ध कर नीहार देती धूप,
तप से मत हिल,
तप ही कर सकता सत्य कभी जो
तेरे मन का सपना ।
तप में जल,
तप में पल,
तप में रह अविचल, अविकल ।
तप का तू पाएगी फल,
तप निश्चल,
तप निश्छल,
तप निर्मल ।
युग घूम-घूमकर आएँ,
तुझको तप में रत पाएँ,
तप की भी है क्या सीमा ?
तप काल नहीं खा सकता,
बुझ जाय सूर्य,
बुझ जाय विश्व की अग्नि,
कभी तप का प्रकाश
पड़ नहीं सकेगा धीमा ।
तू महाभाग,
जो तुझ में तप की पटी आग ।
तू इसी आग में
जल,
तू इसी आग में
ढल,
तू इसी आग में
रख विश्वास अटल ।
विश्व मंदिर में,
विशाल, विराट, महदाकार, सीमाहीन,
यह क्या हो रहा है !
उड़ रहा है हर दिशा में धूम,
घूमते हैं अग्नि-पिंड समूह,
कितने लक्ष,
कितने कोटि,
जैसे ज्योति के हों व्यूह,
और उठता
एक अद्भुत गान
अम्बर मध्य
जो है मौन-सा गंभीर ।
२
सृष्टि आविर्भूत,
प्रलय के तम तोम से हो मुक्त,
दीपित, पूत,
दग्ध कर नीहार देती धूप,
तप से मत हिल,
तप ही कर सकता सत्य कभी जो
तेरे मन का सपना ।
तप में जल,
तप में पल,
तप में रह अविचल, अविकल ।
तप का तू पाएगी फल,
तप निश्चल,
तप निश्छल,
तप निर्मल ।
युग घूम-घूमकर आएँ,
तुझको तप में रत पाएँ,
तप की भी है क्या सीमा ?
तप काल नहीं खा सकता,
बुझ जाय सूर्य,
बुझ जाय विश्व की अग्नि,
कभी तप का प्रकाश
पड़ नहीं सकेगा धीमा ।
तू महाभाग,
जो तुझ में तप की पटी आग ।
तू इसी आग में
जल,
तू इसी आग में
ढल,
तू इसी आग में
रख विश्वास अटल ।
Harivansh Rai Bachchan Kavita
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कविता
बुद्ध और नाचघर हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
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