Featured post

नन्दन और बगिया

सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !

कहाँ गया वह मधुवन जिसकी
आभा-शोभा नित्य नई थी,
जिसके आँगन में वासन्ती
आकर जाना भूल गई थी,

जिसमें खिलती थीं इच्छा की
कलियाँ, अभिलाषा फलती थी,
साँसों में भरती मादकता
वायु जहाँ की मोदमयी थी,

यह सूखा तो आंसू से क्या,
हृदय-रक्त से हरा न होगा,
सूख-सूख फिर-फिर लहराता
वसुधा का ही अंचल धानी।

सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !

दिग्दिगंत में गुंजित होने-
वाला स्वर पड़ मंद गया क्यों ?
जुड़ा हुआ शब्दों-भावों से
खण्ड-खण्ड हो छन्द गया क्यों ?

गाती थीं नन्दन की परियाँ,
राग मिला तू भी गाता था,
बन्द हुए यदि उनके गायन,
गाना तेरा बन्द हुआ क्यों?

प्रेरित होने वाले मन की
प्रेरक शक्ति अकेली कब थी,
मूक पड़े गंधर्वों के सुर,
कूक रही कोयल मस्तानी;

सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !

उस मधुवन का स्वप्न भला क्या
जहाँ नहीं पतझड़ आता है,
जहाँ सुमन अपने जोबन पर
आकर नहीं बिखर पाता है,

जहाँ ढुलकते नहीं कली की
आँखों से मोती के आँसू,
जहाँ नहीं कोकिल का व्याकुल
क्रन्दन गायन बन जाता है

मर्त्य अमर्त्यों के सपने से
धोका देता है अपने को,
अमरों के अमरण जीवन से
मादक मेरी क्षणिक जवानी;

सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !

धन्यवाद दे, नन्दन के मिटने
से तूने धरती देखी,
जड़ दुनिया के बदले तूने
दुनिया जीती-मरती देखी,

वह मन की मूरत थी, उसमें
प्राण कहाँ थे, ओ दीवाने,
यह दुनिया तूने साँसों पर
दबती और उभरती देखी,

स्वप्न हृदय मथकर मिलते हैं,
मूल्य बड़ा उनका, तिसपर भी,
एक सत्य के ऊपर होती
सो-सौ सपनों की कुर्बानी;

सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !

Comments