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१
प्रलय
कर सब नष्ट,
सब कुछ भ्रष्ट,
कर के सब किसी का अंत,
था निरभ्रांत ?-
भ्रांति नितांत ।
२
प्रलय में था
एक अमर अभाव,
उर का घाव,
जो उसको किए था
चिर चपल, चिर विकल, चिर विक्षुब्ध,
उसको थी कहीं यदि शांति
तो बस एक उमकी याद में
जो था कभी संसार-
जागृति, ज्योति का आगार,
जीवन शक्ति का आधार,
उसकी भृकुटि का निर्माण,
उसकी भृकुटि का संहार ।
३
सृष्टि, व्याकुलता प्रलय की,
प्रलय के सूने निलय की,
प्रलय के सूने हृदय की,
प्रलय के उर में उठी जो कल्पना,
वह सृष्टि,
प्रलय पलकों पर पला जो स्वप्न,
वह संसार ।
प्रलय
कर सब नष्ट,
सब कुछ भ्रष्ट,
कर के सब किसी का अंत,
था निरभ्रांत ?-
भ्रांति नितांत ।
२
प्रलय में था
एक अमर अभाव,
उर का घाव,
जो उसको किए था
चिर चपल, चिर विकल, चिर विक्षुब्ध,
उसको थी कहीं यदि शांति
तो बस एक उमकी याद में
जो था कभी संसार-
जागृति, ज्योति का आगार,
जीवन शक्ति का आधार,
उसकी भृकुटि का निर्माण,
उसकी भृकुटि का संहार ।
३
सृष्टि, व्याकुलता प्रलय की,
प्रलय के सूने निलय की,
प्रलय के सूने हृदय की,
प्रलय के उर में उठी जो कल्पना,
वह सृष्टि,
प्रलय पलकों पर पला जो स्वप्न,
वह संसार ।
Harivansh Rai Bachchan Kavita
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कविता
बुद्ध और नाचघर हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
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