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काला कौआ

उजला-उजला हंस एक दिन
उड़ते-उड़ते आया,
हंस देखकर काका कौआ
मन-ही-मन शरमाया ।

लगा सोचने उजला-उजला
में कैसे हो पाऊं-
उजला हो सकता हूँ
साबुन से में अगर नहाऊँ ।

यही सोचता मेरे घर पर
आया काला कागा,
और गुसलखाने से मेरा
साबुन लेकर भागा ।

फिर जाकर गड़ही पर उसने
साबुन खूब लगाया;
खूब नहाया, मगर न अपना ।
कालापन धो पाया ।

मिटा न उसका कालापन तो
मन-ही-मन पछताया,
पास हंस के कभी न फिर वह
काला कौआ आया ।

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