- Get link
- X
- Other Apps
Featured post
- Get link
- X
- Other Apps
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
हास लहरों का सतह को
छोड़ तह में सो गया है,
गान विहगों का उतर तरु-
पल्लवों में खो गया है,
छिप गई है जा क्षितिज पर
वायु चिर चंचल दिवस की,
बन्द घर-घर में शहर का
शोर सारा हो गया है,
पहूँच नीड़ों में गए
पिछड़े हुए दिग्भ्रान्त खग भी,
किन्तु ध्वनि किसकी गगन में
अब तलक मण्डरा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
चीर किसके कण्ठ को यह
उठ रही आवाज़ ऊपर,
दर न दीवारें जिसे हैं
रोक सकतीं, छत न छप्पर,
जो बिलमती है नहीं नभ-
चुम्बिनी अट्टालिका में,
हैं लुभा सकते न जिसको
व्योम के गुम्बद मनोहर,
जो अटकती है नहीं
आकाश-भेदी घनहरों में,
लौट बस जिसकी प्रतिध्वनि
तारकों से आ रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, ऐ आवाज़, तू किस
ओर जाना चाहती है,
दर्द तू अपना बता
किसको जताना चाहती है,
कौन तेरा खो गया है
इस अंधेरी यामिनी में,
तू जिसे फिर से निकट
अपने बुलाना चाहती है,
खोजती फिरती किसे तू
इस तरह पागल, विकल हो,
चाह किसकी है तुझे जो
इस तरह तड़पा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व को विनती सुनाते,
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व से आशा लगाते,
क्या सही अपनी उपेक्षा
अब नहीं जाती जगत से,
बोल क्या ऊबी परीक्षा
धैर्य की अपनी कराते,
जो कि खो विश्वास पूरा
विश्व की संवेदना में,
स्वर्ग को अपनी व्यथाएँ
आज तू बतला रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
अनसुनी आबाज़ जो
संसार में होती रही है,
स्वर्ग में भी साख अपना
वह सदा खोती रही है,
स्वर्ग तो कुछ भी नहीं है
छोड़कर छाया जगत की,
स्वर्ग सपने देखती दुनिया
सदा सोती रही है,
पर किसी असहाय मन के
बीच बाकी एक आशा
एक बाकी आसरे का
गीत गाती जा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
पर अभावों की अरी जो
रागिनी, तू कब अकेली,
तान मेरे भी हृदय की,
ले, बनी तेरी सहेली,
हो रहे, होंगे ध्वनित
कितने हदय यों साथ तेरे,
तू बुझाती, बुझती जाती
युगों से यह पहेली-
"एक ऐसा गीत गाया
जो सदा जाता अकेले,
एक ऐसा गीत जिसको
सृष्टि सारी गा रही है;"
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
पीर जागी जा रही है!
हास लहरों का सतह को
छोड़ तह में सो गया है,
गान विहगों का उतर तरु-
पल्लवों में खो गया है,
छिप गई है जा क्षितिज पर
वायु चिर चंचल दिवस की,
बन्द घर-घर में शहर का
शोर सारा हो गया है,
पहूँच नीड़ों में गए
पिछड़े हुए दिग्भ्रान्त खग भी,
किन्तु ध्वनि किसकी गगन में
अब तलक मण्डरा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
चीर किसके कण्ठ को यह
उठ रही आवाज़ ऊपर,
दर न दीवारें जिसे हैं
रोक सकतीं, छत न छप्पर,
जो बिलमती है नहीं नभ-
चुम्बिनी अट्टालिका में,
हैं लुभा सकते न जिसको
व्योम के गुम्बद मनोहर,
जो अटकती है नहीं
आकाश-भेदी घनहरों में,
लौट बस जिसकी प्रतिध्वनि
तारकों से आ रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, ऐ आवाज़, तू किस
ओर जाना चाहती है,
दर्द तू अपना बता
किसको जताना चाहती है,
कौन तेरा खो गया है
इस अंधेरी यामिनी में,
तू जिसे फिर से निकट
अपने बुलाना चाहती है,
खोजती फिरती किसे तू
इस तरह पागल, विकल हो,
चाह किसकी है तुझे जो
इस तरह तड़पा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व को विनती सुनाते,
बोल, क्या तू थक गई है
विश्व से आशा लगाते,
क्या सही अपनी उपेक्षा
अब नहीं जाती जगत से,
बोल क्या ऊबी परीक्षा
धैर्य की अपनी कराते,
जो कि खो विश्वास पूरा
विश्व की संवेदना में,
स्वर्ग को अपनी व्यथाएँ
आज तू बतला रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
अनसुनी आबाज़ जो
संसार में होती रही है,
स्वर्ग में भी साख अपना
वह सदा खोती रही है,
स्वर्ग तो कुछ भी नहीं है
छोड़कर छाया जगत की,
स्वर्ग सपने देखती दुनिया
सदा सोती रही है,
पर किसी असहाय मन के
बीच बाकी एक आशा
एक बाकी आसरे का
गीत गाती जा रही है;
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
पर अभावों की अरी जो
रागिनी, तू कब अकेली,
तान मेरे भी हृदय की,
ले, बनी तेरी सहेली,
हो रहे, होंगे ध्वनित
कितने हदय यों साथ तेरे,
तू बुझाती, बुझती जाती
युगों से यह पहेली-
"एक ऐसा गीत गाया
जो सदा जाता अकेले,
एक ऐसा गीत जिसको
सृष्टि सारी गा रही है;"
कौन गाता है कि सोई
पीर जागी जा रही है!
Harivansh Rai Bachchan Kavita
Hindi Kavita
Kavita
Poem
Poetry
कविता
सतरंगिनी हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
- Get link
- X
- Other Apps
Comments
Post a Comment