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ऋतु आई है फिर बसंत की।
हवा हंस रही दिक दिगंत की।
सरसों के पीले फूलों ने,
मटक-मटक कर शीश हिलाएँ।
तीसी के नीले सुमनों ने,
खेतों में बाज़ार सजाएँ।
राह तके बैठें हैं अब सब,
शीत लहर के शीघ्र अंत की।
कोयल कूकी आम पेड़ पर,
पीत मंजरी महक उठी है।
पांत, पंछियों की, डालों पर,
चें-चें, चूं-चूं चहक उठी है।
बरगद बाबा खड़े इस तरह,
जैसे काया किसी संत की।
सूरज ने भी शुरू किया है,
थोड़ा-थोड़ा रंग जमाना।
कुछ दिन बाद गाएगा पक्का,
राग भैरवी में वह गाना।
उड़ने लगे तितलियाँ भंवरे,
खुशियाँ पाने को अनंत की।
हवा हंस रही दिक दिगंत की।
सरसों के पीले फूलों ने,
मटक-मटक कर शीश हिलाएँ।
तीसी के नीले सुमनों ने,
खेतों में बाज़ार सजाएँ।
राह तके बैठें हैं अब सब,
शीत लहर के शीघ्र अंत की।
कोयल कूकी आम पेड़ पर,
पीत मंजरी महक उठी है।
पांत, पंछियों की, डालों पर,
चें-चें, चूं-चूं चहक उठी है।
बरगद बाबा खड़े इस तरह,
जैसे काया किसी संत की।
सूरज ने भी शुरू किया है,
थोड़ा-थोड़ा रंग जमाना।
कुछ दिन बाद गाएगा पक्का,
राग भैरवी में वह गाना।
उड़ने लगे तितलियाँ भंवरे,
खुशियाँ पाने को अनंत की।
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