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स्वप्न में तुम हों, तुम्हीं हो जागरण में

स्वप्न में तुम हो, तुम्हीं हो जागरण में।

कब उजाले में मुझे कुछ और भाया,
कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया,
तुम निशा में औ' तुम्हीं प्रात: किरण में;
स्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में।

जो कही मैंने तुम्हारी थी कहानी,
जो सुनी उसमें तुम्हीं तो थीं बखानी,
बात में तुम औ' तुम्हीं वातावरण में;
स्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में।

ध्यान है केवल तुम्हारी ओर जाता,
ध्येय में मेरे नहीं कुछ और आता,
चित्त में तुम हो तुम्हीं हो चिंतवन में;
स्वप्न में तुम हो तुम्ही हो जागरण में।

रूप बनकर घूमता जो वह तुम्हीं हो,
राग बन कर गूंजता जो वह तुम्हीं हो,
तुम नयन में और तुम्हीं अंतःकरण में;
स्वप्न में तुम हों तुम्हीं हो जागरण में।

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