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आँधी / देवीदत्त शुक्ल

संध्या के पहले थी आई,
आँधी हहर हहर कर आई।
उसने चारों ओर उड़ाई,
धूल खूब ही देखो छाई।
धर अपना तब रूप भयंकर,
जाकर चढ़ी शहर के ऊपर।
ध्वजा-पताका तोड़ गिराया,
था लोगों ने जिन्हें सजाया।

फुलबाड़ी-बागों में धँसकर,
डाले तोड़ फूल-फल हँसकर।
कलमी आमों को टपकाया,
जिससे माली ने दुख पाया।

सड़कों पर से लड़के भागे,
मानों सोते से हों जागे।
बनियों ने दूकान बढ़ाई
चौंक पड़े कुंजड़े-हलवाई।

शहर छोड़ आगे वह पहुँची,
नहीं जरा भी मन में सकुची।
गँवई-गाँव खेत सब घेरा,
और किया उन पर निज डेरा।

छानी-छप्पर उड़ा बहाए,
पेड़ बहुत से तोड़ गिराए!
भागी तेजी से जाती थी,
अति प्रचंड हो हहराती थी!

अंधाधुंध देखकर भारी,
व्याकुल हुए सभी नर-नारी।
यही नहीं, पशु-पक्षी सारे,
भागे इधर-उधर हो न्यारे।

जिस प्रचंड गति से थी आई,
नहीं रही वैसी वह भाई।
सबका होता हाल यही है,
सच मानो कुछ झूठ नहीं है।

-बालसखा, मई 1923, 144-145

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