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हो गया क्या देश के सबसे सुनहले दीप का निर्वाण
हो गया क्या देश के
सबसे सुनहले दीप का
निर्वाण!
1
वह जगा क्या जगमगया देश का
तम से घिरा प्रसाद,
वह जगा क्या था जहाँ अवसाद छाया,
छा गया अह्लाद,
वह जगा क्या बिछ गई आशा किरण
की चेतना सब ओर,
वह जगा क्या स्वप्न से सूने हृदय-
मन हो गए आबाद
वह जगा क्या ऊर्ध्व उन्नति-पथ हुआ
आलोक का आधार,
वह जगा क्या कि मानवों का स्वर्ग ने
उठकर किया आह्वान,
हो गया क्या देश के
सबसे सुनहले दीप का
निर्वाण!
2
वह जला क्या जग उठी इस जाति की
सोई हुई तक़दीर,
वह जला क्या दासता की गल गई
बन्धन बनी ज़ंजीर,
वह जला क्या जग उठी आज़ाद होने
की लगन मज़बूत
वह जला क्या हो गई बेकार कारा-
गार की प्राचीर,
वह जला क्या विश्व ने देखा हमें
आश्चर्य से दृग खोल,
वह ला क्या मर्दितों ने क्रांति की
देखी ध्वाजा अम्लान,
हो गया क्या देश के
सबसे दमके दीप का
निर्वाण!
3
वह हँसा तो मृम मरुस्थल में चला
मधुमास-जीवन-श्वास,
वह हँसा तो क़ौम के रौशन भविष्यत
का हुआ विश्वास,
वह हँसा तो जड़ उमंगों ने किया
फिर से नया श्रृंगार,
वह हँसा तो हँस पड़ा देश का
रूठा हुआ इतिहास,
वह हँसा तो रह गया संदेह-शंका
को न कोई ठौर,
वह हँसा तो हिचकिचाहट-भीती-भ्रम का
हो गया अवसान,
हो गया क्या देश के
सबसे चमकते दीप का
निर्वाण!
4
वह उठा एक लौ में बंद होकर
आ गई ज्यों भोर,
वह उठा तो उठ गई सब देश भर की
आँख उनकी ओर,
वह उठा तो उठ पड़ीं सदियाँ विगत
अँगड़ाइयाँ ले साथ,
वह उठा तो उठ पड़े युग-युग दबे
दुखिया, दलित, कमज़ोर,
वह उठा तो उठ पड़ीं उत्साह की
लहरें दृगों के बीच
वह उठा तो झुक गए अन्याय,
अत्याचार के अभिमान,
हो गया क्या देश के
सबसे प्रभामय दीप का
निर्वाण!
5
वह न चाँदी का, न सोने का न कोई
धातु का अनमोल,
थी चढ़ी उस पर न हीरे और मोती
की सजीली खोल,
मृत्तिका की एक मुट्ठी थी कि उपमा
सादगी थी आप,
किन्तु उसका मान सारा स्वर्ग सकता
था कभी क्या तोल?
ताज शाहों के अगर उसने झुकाए
तो तअज्जुब कौन,
कर सका वह निम्नतम, कुचले हुओं का
उच्चमतम उत्थान,
हो गया था देश के
सबसे मनस्वी दीप का
निवार्ण!
6
वह चमकता था, मगर था कब लिए,
तलवार पानीदार,
वह दमकता था, मगर अज्ञात थे
उसको सदा हथियार,
एक अंजलि स्नेह की थी तरलता में
स्नेह के अनुरूप,
किन्तु उसकी धार में था डूब सकता
देश क्या, संसार;
स्नेह में डूबे हुए ही तो हिफ़ाज़त
से पहुँते पार,
स्नेह में जलते हुए ही तो कर सके हैं
ज्योति-जीवनदान,
हो गया क्या देश के
सबसे तपस्वी दीप का
निर्वाण!
7
स्नेह में डूबा हुआ था हाथ से
काती रुई का सूत,
थी बिखरती देश भर के घर-डगर में
एक आभा पूत,
रोशनी सबके लिए थी, एक को भी
थी नहीं अंगार,
फ़र्क अपने औ' पराए में न समझा
शान्ति का वह दूत,
चाँद-सूरज से प्रकाशित एक से हैं
झोंपड़ी-प्रासाद,
एक-सी सबको विभा देते जलाते
जो कि अपने प्राण,
हो गया क्या देश के
सबसे यशस्वी दीप का
निर्वाण!
8
ज्योति में उसकी हुए हम एक यात्रा
के लिए तैयार,
की उसी के आधार हमने तिमिर-गिरि
घाटियाँ भी पार,
हम थके माँदे कभी बैठे, कभी
पीछे चले भी लौट,
किन्तु वह बढ़ता रहा आगे सदा
साहस बना साकार,
आँधियाँ आईं, घटा छाई, गिरा
भी वज्र बारंबार,
पर लगता वह सदा था एक-
अभ्युत्थान! अभ्युत्थान!
हो गया क्या देश के
सबसे अचंचल दीप का
निर्वाण!
9
लक्ष्य उसका था नहीं कर दे महज़
इस देश को आज़ाद,
चाहता वह था कि दुनिया आज की
नाशाद हो फिर शाद,
नाचता उसके दृगों में था नए
मानव-जगत का ख़्वाब,
कर गया उसको कौन औ'
किस वास्ते बर्बाद,
बुझ गया वह दीप जिसकी थी नहीं
जीवन-कहानी पूर्ण,
वह अधूरी क्या रही, इंसानियत का
रुक गया आख्यान।
हो गया क्या देश के
सबसे प्रगतिमय दीप का
निर्वाण!
10
विष-घृणा से देश का वातावरण
पहले हुआ सविकार,
खू़न की नदियाँ बहीं, फिर बस्तियाँ
जलकर गईं हो क्षार,
जो दिखता था अँधेरे में प्रलय के
प्यार की ही राह,
बच न पाया, हाय, वह भी इस घृणा का
क्रूर, निंद्य प्रहार,
सौ समस्याएँ खड़ी हैं, एक का भी
हल नहीं है पास,
क्या गया है रूठ प्यारे देश भारत-
वर्ष से भगवान!
हो गया क्या देश के
सबसे ज़रूरी दीप का
निर्वाण!
हो गया क्या देश के
सबसे सुनहले दीप का
निर्वाण!
1
वह जगा क्या जगमगया देश का
तम से घिरा प्रसाद,
वह जगा क्या था जहाँ अवसाद छाया,
छा गया अह्लाद,
वह जगा क्या बिछ गई आशा किरण
की चेतना सब ओर,
वह जगा क्या स्वप्न से सूने हृदय-
मन हो गए आबाद
वह जगा क्या ऊर्ध्व उन्नति-पथ हुआ
आलोक का आधार,
वह जगा क्या कि मानवों का स्वर्ग ने
उठकर किया आह्वान,
हो गया क्या देश के
सबसे सुनहले दीप का
निर्वाण!
2
वह जला क्या जग उठी इस जाति की
सोई हुई तक़दीर,
वह जला क्या दासता की गल गई
बन्धन बनी ज़ंजीर,
वह जला क्या जग उठी आज़ाद होने
की लगन मज़बूत
वह जला क्या हो गई बेकार कारा-
गार की प्राचीर,
वह जला क्या विश्व ने देखा हमें
आश्चर्य से दृग खोल,
वह ला क्या मर्दितों ने क्रांति की
देखी ध्वाजा अम्लान,
हो गया क्या देश के
सबसे दमके दीप का
निर्वाण!
3
वह हँसा तो मृम मरुस्थल में चला
मधुमास-जीवन-श्वास,
वह हँसा तो क़ौम के रौशन भविष्यत
का हुआ विश्वास,
वह हँसा तो जड़ उमंगों ने किया
फिर से नया श्रृंगार,
वह हँसा तो हँस पड़ा देश का
रूठा हुआ इतिहास,
वह हँसा तो रह गया संदेह-शंका
को न कोई ठौर,
वह हँसा तो हिचकिचाहट-भीती-भ्रम का
हो गया अवसान,
हो गया क्या देश के
सबसे चमकते दीप का
निर्वाण!
4
वह उठा एक लौ में बंद होकर
आ गई ज्यों भोर,
वह उठा तो उठ गई सब देश भर की
आँख उनकी ओर,
वह उठा तो उठ पड़ीं सदियाँ विगत
अँगड़ाइयाँ ले साथ,
वह उठा तो उठ पड़े युग-युग दबे
दुखिया, दलित, कमज़ोर,
वह उठा तो उठ पड़ीं उत्साह की
लहरें दृगों के बीच
वह उठा तो झुक गए अन्याय,
अत्याचार के अभिमान,
हो गया क्या देश के
सबसे प्रभामय दीप का
निर्वाण!
5
वह न चाँदी का, न सोने का न कोई
धातु का अनमोल,
थी चढ़ी उस पर न हीरे और मोती
की सजीली खोल,
मृत्तिका की एक मुट्ठी थी कि उपमा
सादगी थी आप,
किन्तु उसका मान सारा स्वर्ग सकता
था कभी क्या तोल?
ताज शाहों के अगर उसने झुकाए
तो तअज्जुब कौन,
कर सका वह निम्नतम, कुचले हुओं का
उच्चमतम उत्थान,
हो गया था देश के
सबसे मनस्वी दीप का
निवार्ण!
6
वह चमकता था, मगर था कब लिए,
तलवार पानीदार,
वह दमकता था, मगर अज्ञात थे
उसको सदा हथियार,
एक अंजलि स्नेह की थी तरलता में
स्नेह के अनुरूप,
किन्तु उसकी धार में था डूब सकता
देश क्या, संसार;
स्नेह में डूबे हुए ही तो हिफ़ाज़त
से पहुँते पार,
स्नेह में जलते हुए ही तो कर सके हैं
ज्योति-जीवनदान,
हो गया क्या देश के
सबसे तपस्वी दीप का
निर्वाण!
7
स्नेह में डूबा हुआ था हाथ से
काती रुई का सूत,
थी बिखरती देश भर के घर-डगर में
एक आभा पूत,
रोशनी सबके लिए थी, एक को भी
थी नहीं अंगार,
फ़र्क अपने औ' पराए में न समझा
शान्ति का वह दूत,
चाँद-सूरज से प्रकाशित एक से हैं
झोंपड़ी-प्रासाद,
एक-सी सबको विभा देते जलाते
जो कि अपने प्राण,
हो गया क्या देश के
सबसे यशस्वी दीप का
निर्वाण!
8
ज्योति में उसकी हुए हम एक यात्रा
के लिए तैयार,
की उसी के आधार हमने तिमिर-गिरि
घाटियाँ भी पार,
हम थके माँदे कभी बैठे, कभी
पीछे चले भी लौट,
किन्तु वह बढ़ता रहा आगे सदा
साहस बना साकार,
आँधियाँ आईं, घटा छाई, गिरा
भी वज्र बारंबार,
पर लगता वह सदा था एक-
अभ्युत्थान! अभ्युत्थान!
हो गया क्या देश के
सबसे अचंचल दीप का
निर्वाण!
9
लक्ष्य उसका था नहीं कर दे महज़
इस देश को आज़ाद,
चाहता वह था कि दुनिया आज की
नाशाद हो फिर शाद,
नाचता उसके दृगों में था नए
मानव-जगत का ख़्वाब,
कर गया उसको कौन औ'
किस वास्ते बर्बाद,
बुझ गया वह दीप जिसकी थी नहीं
जीवन-कहानी पूर्ण,
वह अधूरी क्या रही, इंसानियत का
रुक गया आख्यान।
हो गया क्या देश के
सबसे प्रगतिमय दीप का
निर्वाण!
10
विष-घृणा से देश का वातावरण
पहले हुआ सविकार,
खू़न की नदियाँ बहीं, फिर बस्तियाँ
जलकर गईं हो क्षार,
जो दिखता था अँधेरे में प्रलय के
प्यार की ही राह,
बच न पाया, हाय, वह भी इस घृणा का
क्रूर, निंद्य प्रहार,
सौ समस्याएँ खड़ी हैं, एक का भी
हल नहीं है पास,
क्या गया है रूठ प्यारे देश भारत-
वर्ष से भगवान!
हो गया क्या देश के
सबसे ज़रूरी दीप का
निर्वाण!
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