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चल बसी संध्या गगन से!
क्षितिज ने साँस गहरी
और संध्या की सुनहरी
छोड़ दी सारी, अभी तक था जिसे थामे लगन से!
चल बसी संध्या गगन से!
हिल उठे तरु-पत्र सहसा,
शांति फिर सर्वत्र सहसा
छा गई, जैसे प्रकृति ने ली विदा दिन के पवन से!
चल बसी संध्या गगन से!
बुलबुलों ने पाटलों से,
षट्पदों ने शतदलों से
कुछ कहा--यह देख मेरे गिर पड़े आँसू नयन से!
चल बसी संध्या गगन से!
क्षितिज ने साँस गहरी
और संध्या की सुनहरी
छोड़ दी सारी, अभी तक था जिसे थामे लगन से!
चल बसी संध्या गगन से!
हिल उठे तरु-पत्र सहसा,
शांति फिर सर्वत्र सहसा
छा गई, जैसे प्रकृति ने ली विदा दिन के पवन से!
चल बसी संध्या गगन से!
बुलबुलों ने पाटलों से,
षट्पदों ने शतदलों से
कुछ कहा--यह देख मेरे गिर पड़े आँसू नयन से!
चल बसी संध्या गगन से!
Harivansh Rai Bachchan Kavita
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Poetry
कविता
निशा निमन्त्रण हरिवंशराय बच्चन
हिंदी कविता
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